प्रेम की कहानियों में, एक बंधन इतना गहरा और अटूट है, कि वो वक्त की सीमाओं से भी परे है। एक पति-पत्नी का रिश्ता। विश्वास, करुणा और आपसी समझ के धागों से बुना ये रिश्ता, इतना मजबूत होता है, कि जिंदगी के हर तूफान को हरा देता है। लेकिन हार जाता है उस वक्त, जब दोनों में से एक साथी, दुनिया छोड़ कर चला जाता है। और पीछे छूट जाता है, एक अधूरा और बिखरा हुआ जीवनसाथी। हमारे भारतीय समाज में पत्नी अपने, पति के रहते, अगर संसार छोड़ कर चली जाती है, तो उसे सौभाग्यशाली समझा जाता है। ताकि उन्हें पति के न रहने पर, समाज की रूढि़यों जैसी तमाम परेशानियां न झेलनी पड़ें। इसकी एक और वजह ये भी है कि उन्हें जिंदगीभर सुहागिन होने का सौभाग्य मिलता है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों को मानें, तो आज दुनिया भर में, 258 मिलियन से ज्यादा विधवाएँ हैं। इन्हीं महिलाओं के साहस और शक्ति का जश्न मनाने के लिए, आज हम अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस मना रहे हैं। इसकी शुरुआत, साल 2005 में लूंबा फाउंडेशन ने की थी। लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने, आधिकारिक तौर पर, इसे साल 2011 में, पहली बार, मनाया था।
गुलामी के वक्त ब्रिटिशों ने भारतीयों पर बहुत अत्याचार किए, लेकिन उन्होंने, साल 1856 में, विधवा पुनर्विवाह एक्ट लाकर, लोगों की मानसिकता को बदलने की एक काबिलेतारीफ, कोशिश की थी। आज वक्त के साथ बहुत कुछ बदला है। जहां पहले, सती प्रथा थी, आज उसी भारत में, अगर कोई अपने विवाहित बेटे को खो देता है, तो वो, अपनी बहु की विदाई, बेटी की तरह करते हैं। खुशी से दूसरी शादी करवाते हैं। ऐसे परिवारों और लोगों को, हम सलाम करते हैं। लेकिन हमारी सोसायटी का एक तबका, आज भी विधवाओं को लेकर, पुरानी रूढि़यों में विश्वास करता है। आज महिलाएं, पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, तो ऐसी रूढि़वादी मानिसकता को बदलने की जरूरत है, और इसकी शुरुआत, हम अपने घरों से कर सकते हैं। हर कोई, प्यार और सम्मान का हकदार हैं, भले ही उनकी वैवाहिक स्थिति कुछ भी हो। वास्तव में, सिर्फ तभी, हम पति और पत्नी के बीच अटूट मिलन का जश्न मना सकते हैं।
आइए, इस अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस पर, द रेवोल्यूशन-देशभक्त हिंदुस्तानी के साथ मिलकर, विधवाओं के साहस, शक्ति और उनके अधिकारों का सम्मान करें।